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Thursday 3 January 2013

24-PARENTS WORSHIP DAY : 14TH FEBRUARY

माँ के दिव्य संस्कार :-

बालक विनोबा के घर-आँगन में कटहल का एक पेड़ था। उसके फल पकने पर उन्हें तोड़ा गया। बाँटकर खाना घर का नियम था। विनोबा की माता रुक्मिणी देवी ने यह शिक्षा विनोबा को एक अनोखी रीति से दी।
उन्होंने विनोबा से पूछा: ‘‘बेटा! तुम्हें ‘देव’ बनना अच्छा लगता है कि ‘राक्षस’?”
अब कौन-सा बच्चा कहेगा कि मुझे राक्षस बनना है!
‘‘तुम्हें पता है कि देव किसे कहते हैं और राक्षस किसे?”
बाल विनोबा बोले: ‘‘जो स्वर्ग में रहे वह देव और जो नरक में रहे वह राक्षस।”
‘‘नहीं बेटे! देव और राक्षस दोनों यहीं पृथ्वी पर ही रहते हैं।”
‘‘वह कैसे?”
‘‘जो दूसरों को दे वह ‘देव’ और जो अपने पास ही रखे वह ‘राक्षस’।”
‘‘तो बोलो बेटा! तुम देव बनोगे कि राक्षस?”
‘‘देव।”
‘‘तो फिर जाओ, पहले पड़ोस में दे आओ, फिर खुद खाओ।”
पत्तों से बने छोटे-छोटे दोनों में माँ ने कटहल के कोए भर दिये। विनोबा आस-पड़ोस में बाँटकर आये, तब माँ ने उन्हें खाने को दिया।
इस प्रकार जैसे बूँद-बूँद से सागर बनता है, वैसे ही माँ रुक्मिणी द्वारा दिये गये सुसंस्कारों से विनोबा का महान व्यक्तित्व निर्मित हुआ ।
माता रुक्मिणी का जीवन भक्तिमय था। चाहे झाडू-बुहारी लगाना हो या बर्तन माँजना हर समय मन में भगवान का स्मरण चलता रहता। दाल पीसते समय वे संतों के अभंग मधुर स्वर में गातीं। घर के एक कोने में देव-मंदिर था। सबको भोजन करा के दोपहर १२ बजे वे प्रभु-मूर्ति के सामने हाथ जोड़कर बैठ जातीं। भगवान का पत्र-पुष्प-नैवेद्य से पूजन करतीं और अंत में कान पकड़कर कहतीं: ‘हे अनंत कोटि ब्रह्मांडनायक! मेरे अपराधों को क्षमा कर!...’ तब उनकी आँखों से प्रेमाभक्ति के मोती झरने लगते और वे भगवद्-प्रार्थना में स्वयं को भूल जातीं।
नन्हे विनोबा के चित्त पर इसका बहुत प्रभाव पड़ा। माँ के नेत्रों की अश्रुधार में विनोबा का चित्त भी जाने-अनजाने विगलित होने लगा और भक्ति के रंग में रँगने लगा।
जब-जब विनोबा बचपन की इस घटना का जिक्र करते उनकी आँखों से बरबस आँसू छलक पड़ते थे। विनोबा कहते थे: ‘विशेष दिन हमारी आँखों से भी आँसू बह सकते हैं। जैसे- श्रीराम नवमी या श्रीकृष्ण जन्माष्टमी। परंतु रोज की पूजा में इस तरह की अश्रुधारा बहते हुए मैंने देखी है। यह भक्ति के बिना नहीं हो सकता। मेरे हृदय में माँ के जो स्मरण बचे हैं उनमें यही सर्वश्रेष्ठ स्मरण है।’
माँ ने विनोबा से बचपन में रोज तुलसी के पौधे को पानी देने का नियम करवाया था। माँ ने कहा: ‘‘बच्चे! अब तुम समझदार हो गये हो। स्वयं स्नान कर लिया करो और प्रतिदिन तुलसी के इस पौधे में जल भी चढ़ाया करो। तुलसी उपासना की हमारी परम्परा पुरखों से चली आ रही है।”
विनोबा ने तर्क किया: ‘‘माँ! तुम कितनी भोली हो! इतना भी नहीं जानती कि यह तो पौधा है। पौधों की पूजा में समय व्यर्थ खोने से क्या लाभ है?”
‘‘लाभ है मुन्ने! श्रद्धा कभी निरर्थक नहीं जाती। हमारे जीवन में जो विकास और बौद्धिकता है, उसका आधार श्रद्धा ही है। श्रद्धा छोटी उपासना से विकसित होती है और अंत में जीवन को महान बना देती है, इसलिए पौधों में भगवद्भाव बेबुनियाद नहीं है।”
बालक विनोबा को माँ के उत्तर से खूब प्रसन्नता हुई। अपनी माता का एक और उज्ज्वल पक्ष उनके सामने आया था। ‘वासुदेवः सर्वम्’ का महत्त्वपूर्ण सूत्र उन्हें मिल गया था। विनोबा ने प्रतिदिन तुलसी को जल देना प्रारम्भ कर दिया और माता की शिक्षा हृदयंगम कर ली। उस माँ की शिक्षा कितनी सत्य निकली, इसका प्रमाण अब सबके सामने है।
विनोबाजी कहते हैं: ‘माँ के मुझ पर अनंत उपकार हैं। उसने मुझे दूध पिलाया, खाना खिलाया, बीमारी में रात-रात जागकर मेरी सेवा की, ये सारे उपकार हैं ही। लेकिन उससे कहीं अधिक उपकार उसने मुझे मानव के आचार धर्म की शिक्षा देकर किया है।
एक बार मेरे हाथ में एक लकड़ी थी और उससे मैं मकान के खंभे को पीट रहा था। माँ ने मुझे रोककर कहा: ‘‘उसे क्यों पीट रहे हो? वह भगवान की मूर्ति है। उसे क्या तकलीफ देनी चाहिए?” “मैं रुक गया। सब भूतों में भगवद्भावना रखें, यह बात बिल्कुल बचपन में माँ ने मुझे पढाई।
स्कूलों में क्या पढाई होती है? क्या किसी स्कूल-कॉलेज में या किसी पुस्तक द्वारा मुझे ये संस्कार मिल सकते थे?
‘मेरे मन पर मेरी माँ का जो संस्कार है उसके लिए कोई उपमा नहीं है।’
शुरू से ही विनोबा में संन्यास-जीवन के प्रति आकर्षण था। कम खाना, सुबह जल्दी उठना, जमीन पर सोना, ‘दासबोध, भगवद्गीता’ जैसे सत्शास्त्रों का वाचन-मनन करना आदि सद्गुण बचपन से ही उनमें प्रकट हुए थे। बेटे को संन्यास-पथ पर बढ़ते देख माता रुक्मिणी को दुःख नहीं होता था। वे कहतीं: ‘‘विन्या! गृहस्थाश्रम का अच्छी तरह पालन करने से एक पीढ़ी का उद्धार होता है परंतु उत्तम ब्रह्मचर्य-पालन से ४२ पीढ़ियों का उद्धार होता है।”
 इस प्रकार उन्होंने विनोबा को आत्मजिज्ञासापूर्ति के पथ पर प्रोत्साहित किया।
विनोबाजी जब घर छोड़कर गये तो चिट्ठी लिखी : ‘अथातो ब्रह्मजिज्ञासा - मैं घर छोड़ रहा हूँ।’
अड़ोस-पड़ोस में बात फैली। लोग कहते: ‘आजकल के लड़के होते ही ऐसे हैं, माँ-बाप की परवाह नहीं करते हैं।’ तब विनोबा की माँ कहतीं: ‘मेरा विन्या कोई नाटक-वाटक जैसी गलत बातों के लिए थोड़े ही घर छोड़कर गया है! उसके हाथ से कभी गलत काम नहीं होगा।’
विनोबाजी के उज्ज्वल चरित्र के पीछे माँ द्वारा दिये गये सुसंस्कारों का अमूल्य योगदान है। ऐसी माताओं के समाज पर अनन्त उपकार हैं, जिन्होंने समाज को ऐसे पुत्ररत्न प्रदान किये। वे माताएँ धन्य हैं! ऐसी माताओं के माता-पिता व कुल-गोत्र भी धन्य हैं!!

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