SATGURU BHAGVAN

Widget by:pyaresatguruji

Saturday 5 January 2013

29-PARENTS WORSHIP DAY : 14TH FEBRUARY

वृद्ध - आश्रम : सामाजिक स्खलन


वृद्ध - आश्रम   :  सामाजिक स्खलन
अगर अब कोई ये कहे की भारत में रिश्ते नातों ,परिवार, अभिभावकों, माता-पिता जैसी सामाजिक जिम्मेदारियों का निर्वाह किया जाता है ,तो मैं सिरे से इस  विचार को ख़ारिज करता हूँ. आज भी लोग अगर ऐसा सोचते हैं तो ये महज खुद को ठगने जैसा है. जिस माँ-बाप ने अपने रातों की नीद ,दिन का चैन, शीत- ताप, सबकी बलि देकर अपने छोटे से बिरवे (बच्चे) को सींच सींच कर एक वृक्ष  का रूप दिया , उसी माँ - बाप को उम्र के आखरी पड़ाव में, उस स्व-सिंचित वृक्ष के छाया से जबरन वंचित किया जा रहा है. इस पर आप का क्या कहना है?
कहाँ गए वो  आदर्श, वो भावनाएं?
आज के आपाधापी के दौर में हमारे पास अपने अहम् की तुष्टि के लिए (सामाजिक, आर्थिक) तो समय ही समय है. लेकिन हम अपने अपने रिश्तों को भावनाओ की गर्माहट देने से चूक  जा रहें है, या यूँ कहे की कन्नी काट जाते है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. हमारे देश में भावनाओं के गिरते स्तर का प्रमाण है ये वृद्ध - आश्रम.
अगर दुर्भाग्य से कभी आप  किसी वृधाश्रम के पास से गुजरे, तो शुन्य में ताकती उन बूढी आँखों की असीम पीड़ा का  सामना (यदि आप संवेदनशील व्यक्ति  है तब ) करना आपके व्यक्तित्व की परीक्षा की दुरूह घड़ी हो सकती है. उनकी पीड़ा पर्व -त्योहारों के समय दुगुनी हो जाती है.
ऐसा माना जाता है की बुढ़ापे में व्यक्ति अपने  मानसिक और शारीरिक सुख की प्राप्ति, स्मृतियों के माध्यम से करता है. वो  उन सारे कार्यो, व्यवहारों को बार बार रिप्ले करके मानसिक सुख की प्राप्ति करता है,जो उसने अपने युवावस्था में किया होता है.ठीक इसी दौर में उसे अपने बच्चों भी याद आते होंगे ,वो बच्चे जिन्होंने उन्हें  अनाथ बना डाला है. जरा सोचिये! उस वक्त क्या बीतती होगी उन पर. क्या इसी दिन के लिए उन्होंने इतना कुछ किया था
ये वृधाश्रम  दो तरह के होते है, निः शुल्क और शुल्क वाले. ये मध्य वर्ग को लगी हुई नयी बीमारी है. और वो भी तथाकथित शिक्षित (Advance ) लोगो की. क्यों की गरीब कभी भी अपने माँ बाप को अपने से अलग नहीं भेजता, रुखा सुखा जो मिले सब मिल बाँट कर खाते हैं उन्हें सामाजिक रुतबे, दिखावे  और भावनात्मक कृत्रिमता जैसी अनर्गल बातों से कुछ लेना देना नहीं रहता है.
दरअसल वृधाश्रम का बढ़ता चलन हमारी जिम्मेदारियों से जी चुराने , आत्मकेंद्रित होने, भौतिकतावादी होने(जिसमे सिर्फ 'स्व'पर जोर होता है) और सामाजिक पलायनवाद  का प्रतीक है, वैसे भी आज का दौर लिव इन रिलेशनशिप का दौर है जिसमे विवाह और बच्चों की जिम्मेदारी से भागने/अस्वीकार करने की पूरी छुट होती है, जरा सोचिये जो पीढ़ी विवाह जैसे सामाजिक बंधन से मुक्ति चाहती हो वो बूढ़े माँ -बाप की जिम्मेदारी कैसे उठा सकती है? कम पढ़े लिखे लोग आज फिर भी अपनी मान्यताओं, सामाजिक जिम्मेदारियों से जुड़े हुए है, ये सामाजिक रोग तथाकथित आधुनिकता का ढोल पीटने वाले शहरी लोग ही पाल रहे है. आज का भारत युवाओं का है. तब क्या होगा जब आज की पीढ़ी बूढी होगी. तब तो शायद भारत में चारो और वृधाश्रम ही होंगे. मैं सुना करता था की हर सामजिक समस्या के मूल में अशिक्षा है, लेकिन आपको ये जानकर आश्चर्य होगा की देश के सबसे अधिक साक्षरता वाले राज्य (केरल) में सबसे अधिक १२८ वृधाश्रम है( www.sctimst.ac.in/amchss/Depressive_Symptoms.pdf) -. बात शिक्षित होने से नहीं  बल्कि जिम्मेदारी से भागने से जुडी है. हमारे बुजुर्ग समाज की संपत्ति है, हम उनके अनुभव, ज्ञान और  सीख का लाभ अपने समाज को दे सकते है. यदि हम उन्हें बोझ समझ कर उनसे किनारा कर लेंगे तब हमें नैतिक मूल्यों, जीवन शैली, और सांस्कृतिक ज्ञान का बोध कौन कराएगा? ये कितने दुर्भाग्य की बात है की जिस वक्त हमारे बुजुर्गों को हमारे शारीरिक और भावनात्मक सहयोग की आवश्यकता होती है एन उसी वक्त हम उनसे मुह मोड़ लेते हैं.
वृधाश्रम उन गरीबों के लिए  उचित है जिनके मानसिक और शारीरिक स्वस्थ्य के लिए खर्च उठा  पाना मुश्किल होताहै

No comments:

Post a Comment

LinkWithin

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...