रामुबा लालजी आचार्य 90 साल की हो चली हैं। लेकिन सालभर से जिंदगी शहर के एक चबूतरे पर कट रही है। आम लोगों के भरोसे। बैंक में नौकरी करने वाली बेटी प्रवीणा का घर भावनगर में ही है। बैंक आते जाते मां को
देखती भी होगी। लेकिन कोई मतलब नहीं। मां की बदतर हालत पर पूछा तो भड़क गईं, बोलीं, ‘हमारी मां हैं। हम जैसे चाहें वैसे रखेंगे।’
रामुबा का एक बेटा भी है। वह सूरत में कारोबार करता है। चबूतरे के आस-पास रहने वाले लोग बताते हैं कि बेटा हर महीने आता है। मिलने नहीं, मां के अंगूठे का निशान लेने। ताकि पेंशन का पैसा बैंक से निकाल सके। रामुबा नर्स की नौकरी करती थीं। उसी की पेंशन मिलती है।
बच्चों ने क्यों छोड़ दिया? रामुबा के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं। बस रो पड़ती हैं। फिर कहती हैं ‘मुझे किसी से कोई उम्मीद नहीं है। मैं भली और मेरा चबूतरा। मेरी फिक्र बगदाणा वाले बजरंगदास बापा (सौराष्ट्र के एक संत) करते हैं। मेरी फिक्र न करो। मैं पागल नहीं हूं।’ ऐसे बन रहा है नया भारत.
प्रवीण
देखती भी होगी। लेकिन कोई मतलब नहीं। मां की बदतर हालत पर पूछा तो भड़क गईं, बोलीं, ‘हमारी मां हैं। हम जैसे चाहें वैसे रखेंगे।’
रामुबा का एक बेटा भी है। वह सूरत में कारोबार करता है। चबूतरे के आस-पास रहने वाले लोग बताते हैं कि बेटा हर महीने आता है। मिलने नहीं, मां के अंगूठे का निशान लेने। ताकि पेंशन का पैसा बैंक से निकाल सके। रामुबा नर्स की नौकरी करती थीं। उसी की पेंशन मिलती है।
बच्चों ने क्यों छोड़ दिया? रामुबा के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं। बस रो पड़ती हैं। फिर कहती हैं ‘मुझे किसी से कोई उम्मीद नहीं है। मैं भली और मेरा चबूतरा। मेरी फिक्र बगदाणा वाले बजरंगदास बापा (सौराष्ट्र के एक संत) करते हैं। मेरी फिक्र न करो। मैं पागल नहीं हूं।’ ऐसे बन रहा है नया भारत.
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