शाप बना वरदान
"जो
अपने आदर्श से
नहीं हटता,
धैर्य और
सहनशीलता को
अपने चरित्र
का भूषण बनाता
है, उसके लिए शाप
भी वरदान बन
जाता है।"
अर्जुन
सशरीर
इन्द्र-सभा
में गया तो
उसके स्वागत
में उर्वशी,
रम्भा आदि
अप्सराओं ने
नृत्य किये।
अर्जुन के रूप
सौंदर्य पर
मोहित हो उर्वशी
उसके निवास
स्थान पर गयी
और प्रणय
निवेदन किया,
साथ ही 'इसमें
कोई दोष नहीं
लगता' इसके
पक्ष में अनेक
दलीलें भी
दीं, किंतु
अर्जुन ने
अपने दृढ़
इन्द्रिय-संयम
का परिचय देते
हुए कहाः
यथा
कुन्ती च
माद्री च शची
चैव ममानघै।
तथा च
वंशजननी त्वं
हि मेऽद्य
गरीयसी।।
गच्छ
मूर्ध्ना
प्रपन्नोऽस्मि
पादौ ते वरवर्णिनि।
त्वं
हि मे मातृवत्
पूज्या
रक्ष्योऽहं
पुत्रवत्
त्वया।।
'मेरी
दृष्टि में
कुंती, माद्री
और शची का जो
स्थान है, वही
तुम्हारा भी
है। तुम पुरु
वंश की जननी होने
के कारण आज
मेरे लिए परम
गुरुस्वरूप
हो। हे
वरवर्णिनि !
मैं तुम्हारे
चरणों में
मस्तक रखकर
तुम्हारी शरण
में आया हूँ।
तुम लौट जाओ।
मेरी दृष्टि में
तुम माता के
समान पूजनीया
हो और पुत्र
के समान मानकर
तुम्हें मेरी
रक्षा करनी
चाहिए।'
(महाभारत
– वनपर्वणि
इन्द्रलोकाभिगमन
पर्व 46.46.47)
उर्वशी
हाव-भाव से और
तर्क देकर
अपनी कामवासना
तृप्त करने
में विफल रही
तो क्रोधित
होकर उसने
अर्जुन को एक
वर्ष तक
नपुंसक होने
का शाप दे
दिया। अर्जुन
ने उर्वशी से
शापित होना
स्वीकार किया परन्तु
संयम नहीं
तोड़ा।
जो
अपने आदर्श से
नहीं हटता,
धैर्य और
सहनशीलता को
अपने चरित्र
का भूषण बनाता
है, उसके लिए शाप
भी वरदान बन
जाता है।
अर्जुन के लिए
शाप भी वरदान
बन जाता है।
अर्जुन के लिए
भी ऐसा ही हुआ।
जब इन्द्र तक
यह बात पहुँची
तो उन्होंने
अर्जुन से कहाः
"तुमने
तो अपने
इन्द्रिय
संयम के
द्वारा ऋषियों
को भी पराजित
कर दिया। तुम
जैसे पुत्र को
पाकर कुंती
वास्तव में
श्रेष्ठ
पुत्रवाली है।
उर्वशी का शाप
तुम्हें
वरदानरूप
सिद्ध होगा।
भूतल पर वनवास
के 13वें वर्ष
में तुम्हें
अज्ञातवास
करना पड़ेगा,
उस समय यह
सहायक होगा।
उसके बाद तुम
अपना
पुरुषत्व फिर
से प्राप्त कर
लोगे।"
इन्द्र
के कथनानुसार
अज्ञातवास के
समय अर्जुन ने
विराट के महल
में नर्तक वेश
में रहकर विराट
की राजकुमारी
की संगीत और
नृत्य विद्या
सिखायी थी,
तत्पश्चात वह
शापमुक्त
हुआ। अर्जुन
उर्वशी का यह
प्रसंग
परस्त्री के
प्रति
मातृभाव रखने
का सुन्दर
उदाहरण है।
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