माता-पिता का सच्चा भक्त
श्रवणकुमार
बहुत पुराने समय की बात है। इस भारत भूमि में सरयू नदी के तट पर
अयोध्यापुरी में दशरथ नाम के राजा राज्य करते थे। राजा दशरथ
प्रजा-पालन करते हुए गुरु वरिष्ठ जैसे महात्मा की देख-रेख में राज्य करते
थे। वे साधु-महात्माओं और दीन-दुखियों की सेवा में रत रहते थे।
इनके शासन-काल में ही श्रवणकुमार हुए, जिनकी माता-पिता की सेवा की कथा छाप भारत के बच्चे बच्चे के दिल पर है। इनके माता-पिता बूढ़े और अन्धे थे। इनकी धर्मपत्नी बड़ी चालाक थी और वह बड़ी सावधानी से अपने पति को तो बढ़िया-बढ़िया भोजन और सास-ससुर को सादा, भोजन देती थी। इसका श्रवणकुमार को पता नहीं चलता था। एक दिन भोजन करते समय श्रवणकुमार ने अपना भोजन पिता से बदल लिया। वह भोजन पाकर पिता बहुत तृप्त हुए और बोले-ऐसा बढ़िया भोजन हमें आज तक नहीं मिला। श्रवणकुमार को अपनी पत्नी की चालाकी पर बहुत दुःख हुआ और उस दिन से माता-पिता की सेवा अपने हाथों से करने लगे। अब उनका यह नियम हो गया कि प्रतिदिन अपने हाथों से वृद्ध माता-पिता को नहलाते, भोजन बनाकर खिलाते, कपड़े धोते और उनकी सेवा करते। माता-पिता की सेवा अपने-आप करने लगे। और पत्नी का बिल्कुल भी विश्वास नहीं करते।
इस प्रकार कई वर्ष बीत गए। माता-पिता ने पुत्र से कहा-बेटा ! हमारी इच्छा भारत भूमि के सभी तीर्थों की यात्रा करने की है। पुत्र ने माता-पिता की आज्ञा के आगे सिर झुकाया और एक बहंगी बनाई। एक पलड़े पर माता और दूसरे पलड़े पर पिता को बिठाया। उस समय यात्रा करना बड़ा कठिन होता था, न जहाज़ थे और न मोटरे ही थी, इसलिए बड़े-बड़े जंगल होते थे, जिनमें जंगली जानवरों की भरमार थी। रास्ता चलना खतरे से खाली न था।
श्रवणकुमार ने माता-पिता की बहंगी को कंधों पर उठाया और तीर्थयात्रा के लिए चल पड़ा। दिन में चलता। सायंकाल होता तो ठहर जाता। माता-पिता की सेवा के बाद संध्या करता और प्रभु से प्रर्थना करता कि-‘हे जगत् के पालन-पोषण करने वाले भगवान, मुझे बल दो जिससे मैं माता-पिता की और अधिक सेवा कर सकूं और अपने जीवन को सफल बना सकूं।’ इस प्रकार वर्षों बीत गए, पर उनकी सेवा का नियम उसी प्रकार बना रहा, उसमें उसने कोई ढील नहीं दी।
एक बार श्रवणकुमार अपने माता-पिता की बहंगी उठाए जंगल में जा रहा था कि उन्हें प्यास लगी। उसने बहंगी को रख दिया और पानी लेने चला। नदी कुछ दूर थी। जब वह नदी के किनारे पहुंचा और अपना घड़ा पानी से भरने लगा, उसी समय राजा दशरथ जंगल में शिकार के लिए आए थे और शब्दबेधी बाण चलाने का अभ्यास कर रहे थे। पानी भरने की आवाज सुनकर उन्होंने ऐसा समझा कि कोई जंगली जानवर नदी में पानी पी रहा है। उन्होंने जो बाण छोड़ा तो श्रवणकुमार के हृदय में ही लगा। उन्होंने ज्योंही किसी मनुष्य की कराहने की आवाज़ सुनी, तो घबरा गए और भागकर उस स्थान पर पहुंचे। देखा कि एक वनयुवक भूमि पर पड़ा कराह रहा है और खून से लथपथ है। यह देख-कर उन्हें बड़ा दुःख हुआ। उसके हृदय से बाण निकाल दिया और उसका पता पूछा।
आदर्श मातृ-पितृभक्त श्रवणकुमार ने अपनी सारी कहानी सुनाई और कहा कि मेरे अन्धे और वृद्ध माता-पिता पेड़ के नीचे बहंगी में बैठे हैं वे प्यासे हैं। आप कृपा करके उन्हें पानी पिला दें। इतना कहकर श्रवण कुमार ने प्राण त्याग दिए।
राजा दशरथ ने घड़े को कंधे पर उठाया और बताए हुए स्थान की ओर चल पड़े। वहां जाकर उन्होंने देखा कि सचमुच ही वे दोनों बड़े प्यासे हैं और अंधे होने के कारण बड़े दुःखी हैं। राजा ने वहाँ घड़ा रख दिया और चुपचाप उन्हें पिलाने लगा। इस पर बूढ़े पिता ने कहा कि बेटा, आज तुम्हें इतनी देर क्यों हो गई और फिर बोलते क्यों नहीं, हम पानी नहीं पिएंगे। तब राजा ने उन्हें श्रवणकुमार की मृत्यु का सारा समाचार सुनाया। यह सुनते ही वे दोनों दुःख से व्याकुल होकर बेहोश हो गए। होश में आते ही उन्होंने राजा से कहा कि हमारे लिए चिता बनाओ। चिता में बैठकर उन्होंने पुत्र के शव को गोद में ले लिया और जीवित ही जल गए। मरने से पहले वृद्ध अन्धे पिता ने दुःख से पीड़ित होकर राजा दशरथ को शाप दिया कि जिस तरह हम आज पुत्र के वियोग में मर रहे हैं, उसी तरह तुम भी पुत्र के वियोग में तड़प-तड़पकर मरोगे।
सचमुच हुआ भी ऐसा ही। जब राजा दशरथ बूढ़े हुए तो उन्होंने अपने बड़े पुत्र श्री रामचन्द्रजी को युवराज बनाना तय किया। इसपर उनकी मंझली रानी कैकेयी ने राजा से दो वर मांगे-एक से अपने पुत्र भरत को राजतिलक और दूसरे से राम को चौदह वर्ष के लिए वनवास। यह सुनते ही राजा पछाड़ खाकर गिर पड़े और बेहोश हो गए। उसी समय रामचन्द्रजी को सूचना दी गई। वे दौड़े-दौड़े आए और सारा हाल जानकर पिता के व्रत की रक्षा करने के लिए वन चले गए। उनके साथ-साथ छोटे भाई लक्ष्मण और पत्नी सीता भी वन गईं। भरत और शत्रुघ्न अपने ननिहाल गए हुए थे। इस प्रकार राजा दशरथ ने अपने पुत्र के वियोग में तड़प-तड़पकर प्राण दिए और श्रवणकुमार के पिता का शाप पूरा हुआ।
बालको ! आओ हम भी आज से व्रत करें कि श्रवणकुमार की तरह माता-पिता की हर आज्ञा का पालन करेंगे और उनकी सेवा तन-मन धन से करेंगे।
इनके शासन-काल में ही श्रवणकुमार हुए, जिनकी माता-पिता की सेवा की कथा छाप भारत के बच्चे बच्चे के दिल पर है। इनके माता-पिता बूढ़े और अन्धे थे। इनकी धर्मपत्नी बड़ी चालाक थी और वह बड़ी सावधानी से अपने पति को तो बढ़िया-बढ़िया भोजन और सास-ससुर को सादा, भोजन देती थी। इसका श्रवणकुमार को पता नहीं चलता था। एक दिन भोजन करते समय श्रवणकुमार ने अपना भोजन पिता से बदल लिया। वह भोजन पाकर पिता बहुत तृप्त हुए और बोले-ऐसा बढ़िया भोजन हमें आज तक नहीं मिला। श्रवणकुमार को अपनी पत्नी की चालाकी पर बहुत दुःख हुआ और उस दिन से माता-पिता की सेवा अपने हाथों से करने लगे। अब उनका यह नियम हो गया कि प्रतिदिन अपने हाथों से वृद्ध माता-पिता को नहलाते, भोजन बनाकर खिलाते, कपड़े धोते और उनकी सेवा करते। माता-पिता की सेवा अपने-आप करने लगे। और पत्नी का बिल्कुल भी विश्वास नहीं करते।
इस प्रकार कई वर्ष बीत गए। माता-पिता ने पुत्र से कहा-बेटा ! हमारी इच्छा भारत भूमि के सभी तीर्थों की यात्रा करने की है। पुत्र ने माता-पिता की आज्ञा के आगे सिर झुकाया और एक बहंगी बनाई। एक पलड़े पर माता और दूसरे पलड़े पर पिता को बिठाया। उस समय यात्रा करना बड़ा कठिन होता था, न जहाज़ थे और न मोटरे ही थी, इसलिए बड़े-बड़े जंगल होते थे, जिनमें जंगली जानवरों की भरमार थी। रास्ता चलना खतरे से खाली न था।
श्रवणकुमार ने माता-पिता की बहंगी को कंधों पर उठाया और तीर्थयात्रा के लिए चल पड़ा। दिन में चलता। सायंकाल होता तो ठहर जाता। माता-पिता की सेवा के बाद संध्या करता और प्रभु से प्रर्थना करता कि-‘हे जगत् के पालन-पोषण करने वाले भगवान, मुझे बल दो जिससे मैं माता-पिता की और अधिक सेवा कर सकूं और अपने जीवन को सफल बना सकूं।’ इस प्रकार वर्षों बीत गए, पर उनकी सेवा का नियम उसी प्रकार बना रहा, उसमें उसने कोई ढील नहीं दी।
एक बार श्रवणकुमार अपने माता-पिता की बहंगी उठाए जंगल में जा रहा था कि उन्हें प्यास लगी। उसने बहंगी को रख दिया और पानी लेने चला। नदी कुछ दूर थी। जब वह नदी के किनारे पहुंचा और अपना घड़ा पानी से भरने लगा, उसी समय राजा दशरथ जंगल में शिकार के लिए आए थे और शब्दबेधी बाण चलाने का अभ्यास कर रहे थे। पानी भरने की आवाज सुनकर उन्होंने ऐसा समझा कि कोई जंगली जानवर नदी में पानी पी रहा है। उन्होंने जो बाण छोड़ा तो श्रवणकुमार के हृदय में ही लगा। उन्होंने ज्योंही किसी मनुष्य की कराहने की आवाज़ सुनी, तो घबरा गए और भागकर उस स्थान पर पहुंचे। देखा कि एक वनयुवक भूमि पर पड़ा कराह रहा है और खून से लथपथ है। यह देख-कर उन्हें बड़ा दुःख हुआ। उसके हृदय से बाण निकाल दिया और उसका पता पूछा।
आदर्श मातृ-पितृभक्त श्रवणकुमार ने अपनी सारी कहानी सुनाई और कहा कि मेरे अन्धे और वृद्ध माता-पिता पेड़ के नीचे बहंगी में बैठे हैं वे प्यासे हैं। आप कृपा करके उन्हें पानी पिला दें। इतना कहकर श्रवण कुमार ने प्राण त्याग दिए।
राजा दशरथ ने घड़े को कंधे पर उठाया और बताए हुए स्थान की ओर चल पड़े। वहां जाकर उन्होंने देखा कि सचमुच ही वे दोनों बड़े प्यासे हैं और अंधे होने के कारण बड़े दुःखी हैं। राजा ने वहाँ घड़ा रख दिया और चुपचाप उन्हें पिलाने लगा। इस पर बूढ़े पिता ने कहा कि बेटा, आज तुम्हें इतनी देर क्यों हो गई और फिर बोलते क्यों नहीं, हम पानी नहीं पिएंगे। तब राजा ने उन्हें श्रवणकुमार की मृत्यु का सारा समाचार सुनाया। यह सुनते ही वे दोनों दुःख से व्याकुल होकर बेहोश हो गए। होश में आते ही उन्होंने राजा से कहा कि हमारे लिए चिता बनाओ। चिता में बैठकर उन्होंने पुत्र के शव को गोद में ले लिया और जीवित ही जल गए। मरने से पहले वृद्ध अन्धे पिता ने दुःख से पीड़ित होकर राजा दशरथ को शाप दिया कि जिस तरह हम आज पुत्र के वियोग में मर रहे हैं, उसी तरह तुम भी पुत्र के वियोग में तड़प-तड़पकर मरोगे।
सचमुच हुआ भी ऐसा ही। जब राजा दशरथ बूढ़े हुए तो उन्होंने अपने बड़े पुत्र श्री रामचन्द्रजी को युवराज बनाना तय किया। इसपर उनकी मंझली रानी कैकेयी ने राजा से दो वर मांगे-एक से अपने पुत्र भरत को राजतिलक और दूसरे से राम को चौदह वर्ष के लिए वनवास। यह सुनते ही राजा पछाड़ खाकर गिर पड़े और बेहोश हो गए। उसी समय रामचन्द्रजी को सूचना दी गई। वे दौड़े-दौड़े आए और सारा हाल जानकर पिता के व्रत की रक्षा करने के लिए वन चले गए। उनके साथ-साथ छोटे भाई लक्ष्मण और पत्नी सीता भी वन गईं। भरत और शत्रुघ्न अपने ननिहाल गए हुए थे। इस प्रकार राजा दशरथ ने अपने पुत्र के वियोग में तड़प-तड़पकर प्राण दिए और श्रवणकुमार के पिता का शाप पूरा हुआ।
बालको ! आओ हम भी आज से व्रत करें कि श्रवणकुमार की तरह माता-पिता की हर आज्ञा का पालन करेंगे और उनकी सेवा तन-मन धन से करेंगे।
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