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Saturday 26 January 2013

74-PARENTS WORSHIP DAY : 14TH FEBRUARY( Divine Valentine Celebration)

मातृ-पितृ-गुरु भक्त पुण्डलिक

शास्त्रों में आता है कि जिसने माता-पिता और गुरु का आदर कर लिया उसके द्वारा सम्पूर्ण लोकों का आदर हो गया और जिसने इनका अनादर कर दिया उसके सम्पूर्ण शुभ कर्म निष्फल हो गये। वे बड़े ही भाग्यशाली हैं जिन्होंने माता-पिता और गुरु की सेवा के महत्त्व को समझा तथा उनकी सेवा में अपना जीवन सफल किया।
ऐसा ही एक भाग्यशाली सपूत था पुण्डलिक।
पुण्डलिक अपनी युवावस्था में तीर्थयात्रा करने के लिए निकला। यात्रा करते-करते काशी पहुँचा। काशी में भगवान विश्वनाथ के दर्शन करने के बाद पुण्डलिक ने लोगों से पूछाः "क्या यहाँ कोई पहुँचे हुए महात्मा हैं जिनके दर्शन करने से हृदय को शांति मिले और ज्ञान प्राप्त हो?"
लोगों ने कहाः हाँ, हैं। गंगा पार कुक्कुर मुनि का आश्रम है। वे पहुँचे हुए आत्मज्ञानी संत हैं। वे सदा परोपकार में लगे रहते हैं। वे इतनी ऊँची कमाई के धनी हैं कि साक्षात् माँ गंगा, माँ यमुना और सरस्वती उनके आश्रम में रसोईघर की सेवा के लिए प्रस्तुत हो जाती हैं।"
पुण्डलिक के मन में कुक्कुर मुनि से मिलने की जिज्ञासा तीव्र हो उठी। पता पूछते-पूछते वह पहुँच गया कुक्कुर मुनि के आश्रम में। भगवान की कृपा से उस समय कुक्कुर मुनि अपनी कुटिया के बाहर ही विराजमान थे। मुनि को देखकर पुण्डलिक ने मन ही मन प्रणाम किया और सत्संग-वचन सुने। मुनि के दर्शन और सत्संग श्रवण के पश्चात् पुण्डलिक को हुआ कि मुनिवर से अकेले में अवश्य मिलना चाहिए। मौका पाकर पुण्डलिक एकान्त में मुनि से मिल गया। मुनि ने पूछाः
"वत्स ! तुम कहाँ से आ रहे हो?"
पुण्डलिकः "मैं पंढरपुर, महाराष्ट्र से आया हूँ।"
"तुम्हारे माता-पिता जीवित हैं न?"
"हाँ, हैं।"
"तुम्हारे गुरु हैं?"
"हाँ, हैं। हमारे गुरु ब्रह्मज्ञानी हैं।"
कुक्कुर मुनि रुष्ट हो गयेः "पुण्डलिक ! तू बड़ा मूर्ख है। माता-पिता विद्यमान हैं, ब्रह्मज्ञानी गुरु हैं फिर भी यहाँ तीर्थ करने के लिए भटक रहा है? अरे पुण्डलिक ! मैंने जो कथा सुनी थी उससे तो मेरा जीवन बदल गया। मैं तुझे वही कथा सुनाता हूँ। तू ध्यान से सुन।
एक बार भगवान शंकर के यहाँ उनके दोनों पुत्रों में होड़ लगी कि 'कौन बड़ा?'
कार्तिक ने कहाः 'गणपति मैं तुमसे बड़ा हूँ।'
गणपतिः 'आप भले उम्र में बड़े हैं लेकिन गुणों से भी बड़प्पन होता है।'
निर्णय लेने के लिए दोनों गये शिव-पार्वती के पास। शिव-पार्वती ने कहाः 'जो सम्पूर्ण पृथ्वी की परिक्रमा करके पहले पहुँचेगा, उसी का बड़प्पन माना जायेगा।'
कार्तिकेय तुरंत अपने वाहन मयूर पर निकल गये पृथ्वी की परिक्रमा करने। गणपति जी चुपके से किनारे चले गये। थोड़ी देर शांत होकर उपाय खोजा। फिर आये शिव-पार्वती के पास। माता-पिता का हाथ पकड़कर दोनों को ऊँचे आसन पर बिठाया, पत्र-पुष्प से उनके श्रीचरणों की पूजा की और प्रदक्षिणा करने लगे। एक चक्कर पूरा हुआ तो प्रणाम किया.... दूसरा चक्कर लगाकर प्रणाम किया... इस प्रकार माता-पिता की सात प्रदक्षिणाएँ कर लीं।
शिव-पार्वती ने पूछाः 'वत्स ! ये प्रदक्षिणाएँ क्यों कीं?"
गणपतिः 'सर्वतीर्थमयी माता.... सर्वदेवमयो पिता.... सारी पृथ्वी की प्रदक्षिणा करने से जो पुण्य होता है वही पुण्य माता की प्रदक्षिणा करने से हो जाता है, यह शास्त्रवचन है। पिता का पूजन करने से सब देवताओं का पूजन हो जाता है। पिता देवस्वरूप हैं। अतः आपकी परिक्रमा करके मैंने सम्पूर्ण पृथ्वी की सात परिक्रमाएँ कर ली हैं।' तबसे गणपति प्रथम पूज्य हो गये।
शिवपुराण में आता हैः
पित्रोश्च पूजनं कृत्वा प्रकान्तिं च करोति यः।
तस्य वै पृथिवीजन्यफलं भवति निश्चितम्।।
अपहाय गृहे यो वै पितरौ तीर्थमाव्रजेत्।
तस्य पापं तथा प्रोक्तं हनने च तयोर्यथा।।
पुत्रस्य य महत्तीर्थं पित्रोश्चरणपंकजम्।
अन्यतीर्थं तु दूरे वै गत्वा सम्प्राप्यते पुनः।।
इदं संनिहितं तीर्थं सुलभं धर्मसाधनम्।
पुत्रस्य च स्त्रियाश्चैव तीर्थं गेहे सुशोभनम्।।
'जो पुत्र माता-पिता की पूजा करके उनकी प्रदक्षिणा करता है, उसे पृथ्वी परिक्रमाजनित फल सुलभ हो जाता है। जो माता पिता को घर पर छोड़कर तीर्थयात्रा के लिए जाता है, वह माता-पिता की हत्या से मिलने वाले पाप का भागी होता है, क्योंकि पुत्र के लिए माता-पिता के चरण-सरोज ही महान तीर्थ हैं। अन्य तीर्थ तो दूर जाने पर प्राप्त होते हैं, परंतु धर्म का साधनभूत यह तीर्थ तो पास में ही सुलभ है। पुत्र के लिए माता-पिता और स्त्री के पति सुन्दर तीर्थ घर में ही विद्यमान हैं।'
(शि.पु., रूद्र.सं., कु. खं- 19.39-42)
पुण्डलिक ! मैंने यह कथा सुनी और मैंने मेरे माता-पिता की आज्ञा का पालन किया। यदि मेरे माता-पिता में कभी कोई कमी दिखती थी तो मैं उस कमी को अपने जीवन में नहीं लाता था और अपनी श्रद्धा को भी कम नहीं होने देता था। मेरे माता-पिता प्रसन्न हुए। उनका आशीर्वाद मुझ पर बरसा। फिर मुझ पर मेरे गुरुदेव की कृपा बरसी इसीलिए मेरी ब्रह्मज्ञान में स्थिति हुई और मुझे योग में सफलता मिली। माता-पिता की सेवा के कारण मेरा हृदय भक्तिभाव से भरा है। मुझे किसी अन्य इष्टदेव की भक्ति करने की कोई मेहनत न करनी पड़ी। मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। आचार्यदेवो भव।
मंदिर में तो पत्थर की मूर्ति में भगवान की भावना की जाती है जबकि माता-पिता और गुरुदेव में तो सचमुच परमात्मदेव हैं, ऐसा मानकर मैंने उनकी प्रसन्नता प्राप्त की। फिर तो मुझे न वर्षों तक तप करना पड़ा न ही अन्य विधि-विधानों की कोई मेहनत करनी पड़ी। तुझे भी पता है कि यहाँ के रसोईघर में स्वयं गंगा-यमुना-सरस्वती आती हैं। तीर्थ भी ब्रह्मज्ञानी के द्वार पर पावन होने के लिए आते हैं। ऐसा ब्रह्मज्ञान माता-पिता और ब्रह्मज्ञानी गुरु की कृपा से मुझे मिला है।
पुण्डलिक को अपनी गलती का एहसास हुआ। उसने कुक्कुर मुनि को प्रणाम किया और पंढरपुर जाकर माता-पिता की सेवा में लग गया।
माता-पिता की सेवा को ही उसने प्रभु की सेवा मान लिया। माता-पिता के प्रति उसकी सेवा की निष्ठा देखकर भगवान नारायण बड़े प्रसन्न हुए और स्वयं उसके समक्ष प्रकट हुए। पुण्डलिक उस समय माता-पिता की सेवा में व्यस्त था। उसने भगवान को बैठने के लिए एक ईंट दी।
अभी भी पंढरपुर में पुण्डलिक की दी हुई ईंट पर भगवान विष्णु खड़े हैं और पुण्डलिक की मातृ-पितृभक्ति की खबर दे रहा है पंढरपुर का तीर्थ।
मैंने तो यह भी देखा है कि जिन्होंने अपने माता-पिता और ब्रह्मज्ञानी गुरु को रिझा लिया है वे भगवान तुल्य पूजे जाते हैं। उनको रिझाने के लिए पूरी दुनिया लालायित रहती है। इतने महान हो जाते हैं वे मातृ-पितृभक्त से और गुरुभक्त से !

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