सबसे श्रेष्ठ संपत्तिः चरित्र
चरित्र
मानव की
श्रेष्ठ
संपत्ति है,
दुनिया की
समस्त
संपदाओं में
महान संपदा
है। पंचभूतों
से निर्मित
मानव-शरीर की
मृत्यु के
बाद, पंचमहाभूतों
में विलीन
होने के बाद
भी जिसका अस्तित्व
बना रहता है,
वह है उसका
चरित्र।
चरित्रवान
व्यक्ति ही
समाज, राष्ट्र
व विश्वसमुदाय
का सही
नेतृत्व और
मार्गदर्शन
कर सकता है।
आज जनता को
दुनियावी
सुख-भोग व
सुविधाओं की
उतनी
आवश्यकता
नहीं है,
जितनी चरित्र
की। अपने
सुविधाओं की
उतनी
आवश्यकता
नहीं है,
जितनी की
चरित्र की।
अपने चरित्र व
सत्कर्मों से
ही मानव चिर
आदरणीय और
पूजनीय हो
जाता है।
स्वामी
शिवानंद कहा
करते थेः
"मनुष्य
जीवन का
सारांश है
चरित्र।
मनुष्य का चरित्रमात्र
ही सदा जीवित
रहता है।
चरित्र का
अर्जन नहीं
किया गया तो
ज्ञान का
अर्जन भी किया
जा सकता। अतः
निष्कलंक
चरित्र का
निर्माण
करें।"
अपने
अलौकिक
चरित्र के
कारण ही आद्य
शंकराचार्य, महात्मा
बुद्ध, स्वामी
विवेकानंद,
पूज्य लीलाशाह
जी बापू जैसे
महापुरुष आज
भी याद किये
जाते हैं।
व्यक्तित्व
का निर्माण
चरित्र से ही
होता है।
बाह्य रूप से
व्यक्ति
कितना ही
सुन्दर क्यों
न हो, कितना ही
निपुण गायक
क्यों न हो,
बड़े-से-बड़ा
कवि या
वैज्ञानिक
क्यों न हो, पर
यदि वह
चरित्रवान न
हुआ तो समाज
में उसके लिए
सम्मानित
स्थान का सदा
अभाव ही
रहेगा। चरित्रहीन
व्यक्ति
आत्मसंतोष और
आत्मसुख से वंचित
रहता है।
आत्मग्लानि व
अशांति
देर-सवेर
चरित्रहीन
व्यक्ति का
पीछा करती ही
है। चरित्रवान
व्यक्ति के
आस-पास
आत्मसंतोष,
आत्मशांति और
सम्मान वैसे
ही मंडराते
हैं. जैसे कमल
के इर्द-गिर्द
भौंरे, मधु के
इर्द-गिर्द
मधुमक्खी व
सरोवर के
इर्द-गिर्द
पानी के
प्यासे।
चरित्र
एक शक्तिशाली
उपकरण है जो
शांति, धैर्य,
स्नेह, प्रेम,
सरलता, नम्रता
आदि दैवी
गुणों को
निखारता है।
यह उस पुष्प
की भाँति है
जो अपना सौरभ
सुदूर देशों
तक फैलाता है।
महान विचार
तथा उज्जवल
चरित्र वाले
व्यक्ति का ओज
चुंबक की
भाँति
प्रभावशाली
होता है।
भगवान
श्रीकृष्ण ने
अर्जुन को
निमित्त बनाकर
सम्पूर्ण
मानव-समुदाय
को उत्तम
चरित्र-निर्माण
के लिए
श्रीमद्
भगवद् गीता के
सोलहवें अध्याय
में दैवी
गुणों का
उपदेश किया
है, जो मानवमात्र
के लिए
प्रेरणास्रोत
हैं, चाहे वह
किसी भी जाति,
धर्म अथवा
संप्रदाय का
हो। उन दैवी
गुणों को
प्रयत्नपूर्वक
अपने आचरण में
लाकर कोई भी
व्यक्ति महान
बन सकता है।
निष्कलंक
चरित्र
निर्माण के
लिए नम्रता,
अहिंसा,
क्षमाशीलता,
गुरुसेवा,
शुचिता,
आत्मसंयम,
विषयों के प्रति
अनासक्ति,
निरहंकारिता,
जन्म-मृत्यु-जरा-व्याधि
तथा दुःखों के
प्रति
अंतर्दृष्टि, निर्भयता,
स्वच्छता,
दानशीलता,
स्वाध्याय, तपस्या,
त्याग-परायणता,
अलोलुपता,
ईर्ष्या, अभिमान,
कुटिलता व
क्रोध का अभाव
तथा शाँति और
शौर्य जैसे
गुण विकसित
करने चाहिए।
कार्य
करने पर एक
प्रकार की आदत
का भाव उदय होता
है। आदत का
बीज बोने से
चरित्र का उदय
और चरित्र का
बीज बोने से
भाग्य का उदय
होता है। वर्तमान
कर्मों से ही
भाग्य बनता
है, इसलिए
सत्कर्म करने
की आदत बना
लें।
चित्त
में विचार, अनुभव
और कर्म से
संस्कार
मुद्रित होते
हैं। व्यक्ति
जो भी सोचता
तथा कर्म करता
है, वह सब यहाँ
अमिट रूप से
मुद्रित हो
जाता है।
व्यक्ति के
मरणोपरांत भी
ये संस्कार
जीवित रहते
हैं। इनके
कारण ही
मनुष्य संसार
में बार-बार
जन्मता-मरता
रहता है।
दुश्चरित्र
व्यक्ति सदा के
लिए
दुश्चरित्र
हो गया – यह
तर्क उचित
नहीं है। अपने
बुरे चरित्र व
विचारों को
बदलने की
शक्ति
प्रत्येक
व्यक्ति में
विद्यमान है।
आम्रपाली
वेश्या, मुगला
डाकू,
बिल्वमंगल,
वेमना योगी,
और भी कई नाम
लिये जा सकते
हैं। एक
वेश्या के
चँगुल में
फँसे व्यक्ति
बिल्वमंगल से
संत सूरदास हो
गये। पत्नी के
प्रेम में दीवाने
थे लेकिन
पत्नी ने
विवेक के दो
शब्द सुनाये
तो वे ही संत
तुलसीदास हो
गये।
आम्रपाली वेश्या
भगवान बुद्ध
की परम भक्तिन
बन कर सन्मार्ग
पर चल पड़ी।
बिगड़ी
जनम अनेक की
सुधरे अब और
आज।
यदि बुरे
विचारों और
बुरी भावनाओं
का स्थान
अच्छे
विचारों और
आदर्शों को
दिया जाए तो
मनुष्य
सदगुणों के
मार्ग में
प्रगति कर सकता
है।
असत्यभाषी
सत्यभाषी बन
सकता है, दुष्चरित्र
सच्चरित्र
में
परिवर्तित हो
सकता है, डाकू
एक नेक इन्सान
ही नहीं ऋषि
भी बन सकता है।
व्यक्ति की
आदतों, गुणों
और आचारों की
प्रतिपक्षी
भावना (विरोधी
गुणों की
भावना) से
बदला जा सकता
है। सतत
अभ्यास से
अवश्य ही सफलता
प्राप्त होती
है। दृढ़
संकल्प और
अदम्य साहस से
जो व्यक्ति
उन्नति के
मार्ग पर आगे
बढ़ता है,
सफलता तो उसके
चरण चूमती है।
चरित्र-निर्माण
का अर्थ होता
है आदतों का
निर्माण। आदत
को बदलने से
चरित्र भी बदल
जाता है। संकल्प,
रूचि, ध्यान
तथा श्रद्धा
से स्वभाव में
किसी भी क्षण
परिवर्तन
किया जा सकता
है। योगाभ्यास
द्वारा भी
मनुष्य अपनी
पुरानी
क्षुद्र
आदतों को
त्याग कर नवीन
कल्याणकारी
आदतों को
ग्रहण कर सकता
है।
आज का
भारतवासी
अपनी बुरी
आदतें बदलकर
अच्छा इन्सान
बनना तो दूर रहा,
प्रत्युत
पाश्चात्य
संस्कृति का
अंधानुकरण
करते हुए और
ज्यादा बुरी
आदतों का
शिकार बनता जा
रहा है, जो
राष्ट्र के
सामाजिक व
नैतिक पतन का
हेतु है।
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